*परिवार-*
आधुनिक विद्या विधान ने हिंदुओं को अपने धर्म से
दूर किया। धर्म के प्रति अनास्था, एवं सन्दिग्धता को जगाया।
इसका एक सुन्दर उपमान—
एक
पोती अपनी दादी से बोलती है कि- “मैं, मेरा
भाई, और बहन, माता व पिता- यह सब मिलकर
हम एक परिवार है। चाचा चाची व उनके बच्चे दूसरा परिवार है।” तो
दादी उसे टोकती है कि- “नहीं बेटा, हम
सब एक ही परिवार है। दादा, दादी, दोनों
चाचा, तुम लोग- सब इसी परिवार के हैं।” लेकिन वह बच्ची यह नहीं मानती है, क्योंकि उसके
पाठ्यपुस्तक में यही लिखा गया है। चित्र बनाकर दिखाया गया है, कि केवल माता पिता और उनके संतान- इतना ही परिवार है। बाकी जितने लोग हैं,
वह बाहर के होते हैं, चाहे घर में एक साथ
रहें।
इस
ज्ञान ने बच्ची के कोमल मन में फूट डाल दी है । अब वह दादी की बात कभी नहीं
मानेगी। उसको केवल अपने विद्यालय में जो शिक्षा मिली है, उसकी
अध्यापिका ने उसको जो कुछ बताया है, वही उसके दिमाग में भर
जाता है।
वह
दादी बेचारी को तो पता भी नहीं होता कि वह बाहर की है। वह यही सोचती रहती है कि ‘मैं
भी इसी परिवार की हूं और यह मेरा बेटा है। इसके साथ रहना मेरे लिए काशी वास के
समान पुण्यदायी है।’ लेकिन उसी बेटे के बच्चे उस दादी को घर की सदस्य नहीं मानते
हैं। यहां तक कि आधुनिक विद्या ग्रहण करके आई हुई बहू भी उस पति की मां को अपना नहीं
मानती है। और इस फूट की वजह से दादी या दादा को घर से दूर रहना पड़ता है। या बहुत
परायापन सहना पड़ता है।
बस
यहीं से प्रारंभ हो रहा है हिंदुओं का धर्म का नीव का हिलना और विनाश।
--उषाराणी सङ्का
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