Thursday, May 31, 2018

मन की बात - 3. सुभाषित और उपदेश- स्वयं और अन्य के परिलक्ष्य में

मन की बात- ३१.०५.२०१८

सुभाषित मुझे हमेशा अच्छा लगता है। कितनी अच्छी बातें हैं, गहरी बातें हैं। इनके पता सबको होनी चाहिए- ऐसा लगता था। संसार में एक प्रथा है की ‘जो हित भी हो मनोहारी भी हो- ऐसे वचन दुर्लभ है।’ भर्तृहरि भी अपने सुभाषितम् के प्रारंभ में इसी भावना को व्यक्त करते है कि- ‘मैं सुभाषित लिखने तो जा रहा हूं, लेकिन यह पढ़ेगा कौन? इनकी उपयोगिता किसको होगी? क्योंकि जो पंडित जन हैं, वे मत्सर भावना से युक्त हैं और जो प्रभुलोग हैं वह गर्व भावना से पीड़ित है। तो क्या सुभाषित किसी की उपयोगिता के लिए नहीं?
            ऐसा बिल्कुल नहीं है सुभाषित तो सबसे पहले उपयोग होता है दूसरों को उपदेश देने के लिए। अपने लिए तो उनके कोई उपयोगिता नहीं है। यह सामान्यतः लोकाचार में देखा जाता है कि जब दूसरों को पट्टी पढ़ाने की बात आती है तो सब आगे रहते हैं। यह नकारा नहीं जा सकता। जो बुद्धिमान लोग होते हैं, वह सोचते हैं कि हमें किसी को उपदेश नहीं देना चाहिए। पहले हमको स्वयं आचरण करना चाहिए। उपदेश देना एक बात है, और आचरण करना दूसरी बात।
            इसमें दो बातें हैं- आचरण किए बिना किसी को आदेश नहीं देना चाहिए- यह भावना सही है। परंतु हर बार यह साध्य नहीं है। इसके लिए बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति को भी अधिक परिश्रम करना पड़ता है। रामकृष्ण परमहंस की गुड वाले कहानी लोक में बहुत प्रसिद्ध है- जहां पर एक लड़के को गुड़ खाने से मना करने के लिए वे स्वयं एक मास पर्यंत गुड बंद करते हैं फिर उसको उपदेश देते हैं।
            मेरे अनुभव की बात यह है कि हमें इतना अधिक प्रयास करने का हर बार अवसर नहीं मिलता। कदाचित हम स्वयं आचरण नहीं किए तो भी अन्यों के आवश्यकतानुसार उपदेश दे सकते हैं। यदि हम उसी बात का ज्ञान एवं समझ रखते हैं, तो उसमें कोई समस्या नहीं है। हो सकता है, सामने वाले की भूख, समझने की इच्छा एवं स्पष्टता तुरंत उस बात को आचरण करने में उसके सहयोग हो।
            कभी-कभी यह भी होता है कि दूसरों को बोलते बोलते स्वयं अपने अंदर एक समझ जागती है। और हम इस बात के प्रति सचेत हो जाते हैं कि- ‘अरे, मैंने उसको उपदेश तो दिया, अब स्वयं करने की बारी आई, तो मैं झुक रहा हूं।’ यह मेरे अनुभव की बात है कि दूसरों को समझाते समझाते मैंने उसको एक अस्त्र की तरह, एक शस्त्र की तरह, या एक परिकर की तरह उसको उपयोग किया। जब भी किसी बात को मुझे आचरण में लाना होता है और मैं चाहती हूं तो दूसरों को उसी बात को समझाती हूं। जब उनके आवश्यकता पड़ती है, और मेरी अंतरात्मा मुझे उस बात के प्रति आचरण करने की शक्ति दे देती है और वह बात मेरे जीवन में ढल जाती है।
            तो सच ही है न- जलमन्नं सुभाषितम्। जैसा जल, एवं अन्न, वैसा ही सुभाषित। मेरे लिए तो सुभाषित हितकारी और मनोहर दोनों लगते हैं। जय सुभाषित परम्परा की॥

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