Thursday, May 31, 2018

लेखन-2. विवाह व्यवस्था - सनातन व पाश्चात्य दृष्टिकोण से (स्वकीयलेख)

जब भी सनातन धर्म ने बात की है तो इस जन्म का उद्देश्य केवल परमात्मा तक पहुंचना मात्र बताया है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ मार्ग, कुछ सुविधाएँ, कुछ व्यवस्थाएँ कल्पित की गईं हैं जिनका आचरण हर भारतीय बड़ी आस्था से युगों से करता आया है। भारतीय समाज का हर वैयक्तिक व संघटित अंग इस उद्देश्य से जुड़ा हुआ है। वर्णाश्रम धर्म, चतुर्विध पुरुषार्थ, यज्ञ, दान, तप इत्यादि सारे मूल्यवान साधन परमात्मा प्राप्ति के लिए ही उद्दिष्ट हैं।
          इन्हीं व्यवस्थाओं में से एक है विवाह व्यवस्था। यह दूसरी संख्या पर स्थित अत्यन्त प्रमुख आश्रम है जो गृहस्थ आश्रम के नाम से जाना जाता है । इसके निर्वाह के लिए पुरुष को चाहिए कि वह किसी योग्य कन्या के साथ विवाह करे व साथ में सत्कर्म करते हुए धार्मिक जीवन को व्यतीत करे। अन्य तीन आश्रमों के लिए आधारभूत शिला के समान[1] गार्हस्थ्य आश्रम सनातन धर्म का सुशोभित वृक्ष के समान फलती फूलती व्यवस्था रही।
[[1]गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः ॥]
            हमारे देश में सनातनधर्मानुयायी पीढी दर पीढी परम कर्तव्य मानकर इस गृहमेधी व्रत का पालन करते आए हैं। बस एक दो पीढी पीछे चलने मात्र से कुटुम्बी की छवि सम्पूर्ण अंगों के साथ देखने को मिलेगी। पतिपत्नी के सम्बन्ध में अनुराग, ममत्व, धर्म-काम, धर्म-अर्थ, सुखदुःख में समानभाव से एक दूसरे के साथ निभाना, गृहनिर्वाह में अपने अपने दायित्व को स्वीकारना, सत्सन्तान के द्वारा वंशचालन, आपसी प्रेम, अन्योन्यता, परस्पर समर्पण व त्याग के साथ आपसी अधिकार को मानना – इनकी विशेषता हर अंग में दिखती थी। पत्नी पति के जीवन की कामना करती हुई व्रतादि का आचरण करती है; पति पत्नी को दीर्घायु व सौभाग्य का आशीर्वाद देता है। समाजिकजीवन में भी उत्साह से भाग लेना, परोपकार, सदाचार, अतिथिसम्मान, अपने वर्ण के अनुसार आचारों का पालन, पञ्चयज्ञादि... एक दूसरे की पूरकता से लेकर, (एक मोक्ष को छोड़कर) बाकी त्रिवर्ग के हर पहलू में साथ देने तक सम्पूर्णता में गृहस्थ जीवन पल्लवित हुआ। यह भी सत्य है, कि एक बार एक जन्म में पति-पत्नी हुए तो साधारणतः उनका शारीरिक वियोग मृत्यु के बाद ही सम्भव है; इतना ही नहीं, यहाँ जन्म जन्मांतरों में भी पति-पत्नी के सम्बन्ध की अविच्छिन्नता को बताया गया है।
            पर पाश्चात्य आक्रमणों व परधर्मों के दुरागमन के बाद भारतीय चिंतन धारा व सनातन धार्मिक व्यवस्थाओं में बहुत बड़ा विघात हो गया और बहुत सारी व्यवस्थाओं पर बुरा असर पड़ा। उनके उद्देश्य विचलित हुए और मार्ग भटक गए, दृष्टिकोण पूरी तरह छिन्नभिन्न होचले। विवाह व्यवस्था को ही देख लें- तो जहाँ सनातन धर्म विवाह को धर्म संतान प्राप्ति और जीव की धार्मिक पुरोगति का सरलतम मार्ग बताता है, वहीं पाश्चात्य-कुकृति विवाह को केवल काम पूर्ति का साधन और लीगल एग्रीमेंट की तरह देखता-दिखाता है। पत्नी के लिए पति शारीरिक सुरक्षा का, आर्थिकलाभ का स्थान होता है और पत्नी पति के लिए शरीर के ताप को मिटाने वाली मानी जाती है। सन्तान तो गल्ती से होजाती है, वह भी दोनों को इच्छा हो तो ही! अब यह व्यक्ति के आंतरिक स्तर व चिंतन विधान पर निर्भर करता है कि वह इस बंधन को संश्लिष्टात्मक पहलुओं में सजागता के साथ, कितनी दृढ़ता से और विवेक से निर्वाह करता है। व्यक्ति के दोष और ह्रस्व बुद्धि के कारण प्रायः पाश्चात्य विवाहों में स्थिरता नहीं होती। उनके समाज में पति-पत्नी का तलाक, रिश्तों का सहज ही टूट जाना, बिछड़ना, पुनर्विवाह, बच्चों का दूर होना, घरों का बिखरना साधारण सी बात होती है।
            कहने को तो “न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते” (घर घर नहीं होता, गृहिणी ही घर होता है) जेसै बड़े आदर्श पाश्चात्य समाज में पत्नी के लिए नाममात्र जताये तो जाते हैं, पर व्यवहार में तो वैसा नहीं दीखता। WhatsApp में Facebook में इत्यादि स्थानों पर बहुत अधिक अग्रेषण किए जाने वाले संदेशों में पत्नियों पर, (स्त्रियों पर) कई सारे दुःखकारी चुटकुले ही अधिक होते हैं। जिसमें पत्नी को मरते हुए देखने की इच्छा तक की जताई जा रही है। इनके परिशीलन से पता चलता है कि- पत्नी 1. पैसे को खर्च करने वाली, 2. बहुत मुंहफट, नित्य असन्तुष्ट 3. नासमझ, अविवेकी, बुद्धिहीन 4. पति को गाली देने वाली, कोसने वाली, उसका अपमान करने वाली, 5. फैशन परस्त, सदा शरीर की सुन्दरता पर ध्यान देने वाली 6. पति से घर का सारा काम करवाने वाली, दायित्व से बचने वाली, 7. आलसी, अतिथियों को अपमानित करने वाली, 8. बच्चों को ठीक से न देखने वाली, 9. सीरियल टीवी में मग्न, 10. धनाकांक्षी, पतिसे पैसे एंठने वाली, 11. परपुरुषानुरक्ता, (पराई पुरुषों के साथ अनैतिक संबंध रखने वाली) और भी बहुत कुछ पत्नी के बारे में खुले आम जताया जा रहा है। वहीं पति 1. पराई स्त्रियों पर आसक्त, 2. कामवासना लिप्त, स्त्री संग रत, 3. अशक्त, मूक, पत्नी से डरने वाला 4. सदैव पत्नी-बच्चों से बचने वाला, 5. गृहस्थी का कदर ना करने वाला, 6. अन्याय को सहने वाला, 7. पियक्कड़, अन्य बुरी आदतों से ग्रस्त,  8. पत्नी के मृत्यु का प्रतीक्षा करने वाला- दिखाया जा रहा है । [ध्यान से देखें तो हमारे धर्मग्रन्थों में इन सबका वर्णन मिलता है, पर नकारात्म प्रवृत्तियों के अन्तर्गत] और इन भावनाओं को चुटकुले के रूप में प्रेषित किया जा रहा है, जिन्हें पढ़कर हँसी छूटने के साथ “हाँ, सही तो है” ऐसी भावना हर किसी के मन में तुरन्त जागजाती है। बड़ी शान्ति से, मौन से वह वैमनस्य भावना- धारणा बनकर मन में घर कर जाती है, और आपसी सम्बन्धों को समय समय पर क्रमश नष्ट करने में सफल होजाते हैं । पति के विरोध वाले चुटकुले पत्नियों को मज़ा दिलाते हैं, और पत्नियों के विरोध में चुटकुले पतियों को सुकून।
            जहाँ कामपूर्ति ही जीवन का लक्ष्य हो, ऐसे पाश्चात्य जीवन विधान में ऐसे सम्बन्ध सहज हैं। स्थिरता तो जैसे वहाँ किसी चिड़िया का नाम भी नहीं है। स्थितियाँ भी ऐसे प्रतिक्रिया व परिणामों के अनुकूल ही होते हैं। अब उनके हर पहलू का भारतीय जीवन विधान पर पूरा पूरा दुष्प्रभाव छा जाने के बाद सनातनी समदृष्टि पर तीक्ष्णतम आघात होता देखा जारहा है, और हमारे दृष्टिकोण में विकृतियों से भरी उसी पैशाचिकता ने स्थान लेलिया। अब अपनी सुन्दर, सहज, व्यवस्थित प्रणालीबद्ध जीवन विधान को वापस लाना और उस उद्देश्य को आधुनिक पीढ़ी तक पहुँचाना लगभग असंभव सा हो चला है। समाज की अन्यान्य कुरीतियों को देखने के बाद विवाह व्यवस्था का भी उसी दिशा में आगे बढ़ना और उसमें लगातार तेज़ी से मूल्यों का घटना इसी बात की ओर संकेत करता है कि जल्दी ही इस समाज में विवाह व्यवस्था भी पूरी तरह नष्ट होने वाला है।
            अब उसका परिणाम क्या होगा? अधिकतर लोग विवाह करते ही नहीं, साथ जीते हैं, चरते हैं, क्यों कि विवाह से स्वतंत्रता खत्म हो जाती है। समझदारी इसी में है कि विवाह किए बिना ही किसी से शारीरिक संबंध बना लें । या विवाहितों से या विवाह के पश्चात भी विवाहेतर संबंध ही बना लें। क्यों कि मनुष्य की जन्मजात चार सहज प्रवृत्तियाँ हैं- आहार-निद्रा-भय-मैथुन। भूख-प्यास, निद्रा, भय और पुरुष/स्त्रीसंग की कामना। ऐसी कामवासना को भारतीय ऋषियों ने विवाह के माध्यम से धर्मबद्ध कर दिया, जिसके चलते पति-पत्नी केवल अपने शारीरिक व मानसिक कामनापूर्ति ही नहीं, उसे पूरा करते करते अन्य बहुत सारे परमलक्ष्यों, जैसे सन्तान, को प्रवाह धारा में ही सहज पा लेते हैं।
            अब विवाह के बिना सर्वप्रथम आतंक होगा- सन्तान का। अविवाहितों को सन्तानोत्पत्ति हुई तो वे पालनपोषण नहीं करेंगे। समाज में अनाथ अधिक होजाएंगे। सन्तान का होना भी पति-पत्नी को माता-पिता नहीं बनाता, क्यों कि संगेच्छा के अभाव में वियोग के कारण बच्चों का भविष्य कुछ भी होसकता है- उनका दायित्व पति-पत्नी का कभी नहीं होता। माँ पिता के नाम, आश्रय, प्यार, जीवन के छोटे छोटे आवश्यकताओं के बिना पलेंगे और विद्याहीन, धनहीन, संघर्ष से झूझते या तो अशान्ति के कारण अन्यों को पीड़ित करेंगे, या स्वयं शोषण के भागी होंगे। पुनः यौवन, व प्रौढता प्राप्ति पर अवैधिक विधि से सम्बन्ध बनाएंगे, और सन्तान पैदा करेंगे। दूसरी समस्या- वियोजित पति-पत्नी को अन्यका साथ मिलना, न मिलना। अन्य का संग प्राप्त हुआ तो उनका पुनः बसेरा होगा। वरना शरीर ताप से, मानसिक अस्थिरता से पीड़ित होते हुए, चंचल, असन्तुष्ट, अस्थिर व ईरष्यालू होजाते हैं। अब उनमें स्त्री-पुरुष दोनों ही अपने कार्यालयों में, अड़ोस पड़ोस में, अन्यत्र जहाँ अवकाश मिले, वहाँ साथ खोजने लगते हैं। अब यह साथ कैसा हो, यह उसके व्यक्तिगत व्यवहार व निर्वाह क्षमता पर आधारित होता है। उसे साथ मिलने या न मिलने के परिणाम दो प्रकार के होते हैं- या तो बलात्कारी प्रवृत्तियाँ, या आत्मघाती- दोनों ही विनाशकारी, इह-पर दोनों का नाशक। तीसरा दोष है- ऐसे क्रिमिनल परस्त दूसरों को फलते फूलते को देखकर ईर्ष्या, घृणा, उनके विनाश की कामना और उसके लिए कपट-छल करना, इत्यादि सब करसकते हैं। इनकी उग्र कामवासना व साथ की असीम आवश्यकता के कारण अधिकतर अन्यों के वैवाहिक जीवन प्रभावित होजाते हैं; जिसका परिणाम स्वरूप- पुनः साथ पुनः विच्छेद, पुनः खोज, पुनः संग की प्राप्ति, अनाथ- जिसकी एक परम्परा सी बँध जाती है। इसकी पुष्टि के लिए चाहें तो पाश्चात्य समाज को परख कर देखलें, व्यक्तिगत जीवन उनका इन्हीं परिणामों का दर्पण सा है।
          ऐसी दुखद स्थिति में भारतीय चिंतन को टूटते हुए देखकर विवाह व्यवस्था में युवा पीढ़ी की कम होते विश्वास को देखकर लगता है कि काश, इसमें हम कुछ सद्भावना ला सकते, कुछ विश्वास भर सकते। इस बंधन को सुदृढ़ बना सकते, कुछ प्राणान्वित कर सकते। काश, लोग जिस अन्धानुकरण से पाश्चात्यता के अनुयायी होते जा रहें हैं, अपनी स्वैरता, कामपूर्ति में स्वतन्त्रता की बात करते हैं, उन्हें अपने माता-पिता दादा-दादी क्यों नहीं दिखते? यदि वे भी स्वैर करके इन्हें पैदा करते तो इनकी स्थिति समाज में क्या होती? कहाँ जाते? कैसे सर उठाते? एक बार पश्चिम असभ्यता के परिणामों को उन्हीं के समाज में मनोविज्ञान के क्षेत्रोंमें, जेलों में, अपराधप्रवृत्तियों के अध्ययनों में, मानसिकचिकित्सालयों में – अच्छई तरह झाँककर देखलेते। “काम एष क्रोध एष- महाशनो महापाप्मा” इस गीता वाक्य के परिलक्ष्य में जीवन के अन्धकार पूर्ण इस वास्तविक पहलू को एक बार परख लेते। उससे अवश्य जानपाते कि कामवासना के पीछे भागने से कितने आकस्मिक और अनिच्छित परिणाम होसकते हैं, और भारतीय सभ्यता ने कैसे उस प्रलय से हमें सदियों तक कितने दृढता के साथ रोककर रखा था।
            उन निःस्वार्थ, मनोवैज्ञानिक, तपस्वी ऋषियों के दूरदृष्टि को शत शत नमन के साथ॥

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