*पाश में बद्ध पशु*
विचित्र गति है संसार का। कहते हैं, मानव जन्म
दुर्लभ है। और स्थिति व गति देखकर लगता भी है। पुनर्जन्म व पूर्वजन्म भी सत्य ही
है। वरना इस जन्म में घट रही हर घटना का इसी जन्म से सम्बद्ध विवरण नहीं दिया जा
सकता। व्यक्त रूप से ही पूर्व कर्म ही निर्दिष्ट करता है आगे की गति। पूर्व आचरित
कर्म हमें बान्धते हैं, चाहे अच्छे हों, या बुरे। इस संसार का नियम है- कि जो हम
दूसरे को देते हैं, वही हम पाते हैं। कभी कभी अन्तर्मन में लगता है- त्यागेनैकेन अमृतत्वमानशुः
का यही अर्थ होता होगा। वरना सर्व धर्मों का सार बताते हुए व्यास भगवान “परोपकारः
पुण्याय पापय परपीडनम्” ऐसा श्लोक नहीं करते।
दुर्लभ
मनुष्य जन्म को पाकर भी मानव सदैव कितने पाशों में बद्ध है न! एक तो सुख ही चाहिए,
दुःख नहीं। उसके लिए पूर्व कर्म अच्छे ही होने चाहिए। बुरे नहीं। और हमें पता
नहीं, कि हम ने कौन से कर्म किए। कोई कच्चा चिट्ठा हमारे सामने खुला तो नहीं है।
बस, प्राथमिक या मुख्य बातें ज्योतिषी से पता चल सकते हैं, वह भी जन्म तिथि समय
आदि की निर्दुष्टता के आधार पर। अन्य शास्त्र हैं, पर सब केवल घटना क्रम को सूचित
कर सकते हैं, निर्दिष्ट नहीं कर सकते।
जन्म
लेते ही आते हैं, भूख, प्यास की समस्या। चलो, धन्यवाद माता पिता का, जो यौवन आने
तक का हमारा भरण पोषण कर देतें हैं। फिर विद्या ग्रहण नहीं किया तो अज्ञानी रह
जाएंगे। उसके तुरन्त बाद रोटी कपडे आदि की व्यवस्था स्वयं करने की समस्या। या सरल
भाषा में वृत्ति का आयोजन करो। फिर तुरन्त बाद घर बसाओ, बच्चे पालो। उनका भविष्य
बनाओ। गृहस्थ धर्म निभाओ। आर्थिक धारा में रुकावट न हो। यहाँ तक रही- शरीर
निर्वाह, व गृह तक के पाश।
फिर
आते हैं समाज व संसार की ओर से पाश। अपने वर्ण के हिसाब से, अपने सामाजिक स्थिति
के आधार पर अपना कार्य करो। कार्यालय, मित्र गण, आसपडोस, अतिथि सेवा, यात्रा
इत्यादि, पर्व निर्वाह, रोग-भोग, बन्धुजन आदि आदि का ध्यान रखो। फिर कई सारे विशेष
सन्दर्भ। पिसते रहो। बस। इतने में बाल्य व यौवन गया। फिर जरा का आगमन।
अब,
अच्छे घर में जन्म, धर्मचिन्तक मातापिता, ज्ञानी गुरु, योग्य शिक्षक या शिक्षा
स्थान, वास योग्य गृह, भरपूर वृत्ति, सहयोगी पति/पत्नी, आज्ञाकारी बच्चे, यथेष्ट खर्च करने के लिए धन, पेट भर अन्न,
सदाचारी मित्र, अच्छे सहकर्मी, अच्छी वाक्, तीक्ष्ण व हितकारी बुद्धि, आध्यात्मिक
प्रगति- एक एक की प्राप्ति पूर्व अर्जित पुण्य पर ही निर्भर रहता है। फिर ग्रह
गति। कौन सी ग्रह स्थिति कब चालू होकर अपना कर्तब दिखाना प्रारम्भ करें, कोई कह
नहीं सकता। चाहे ज्योतिषी लाख सूचित करें। चाहे कोई कुछ भी करें, बहुत कम होता है,
कि कर्म टली हो।
फिर
आते हैं, काम, क्रोध आदि के वलय। इन से बचते फिरो। कहीं भी गिर सकते हैं। अधर्म न
हो जाए। किसी आवेश में आकर त्रुटि न होजाए। अब लोक जीवन है। तो सामाजिक स्थिति भी
हम पर अपना प्रभाव डालता है। ब्रिटिश, मुगल आदि के जब राज्य चल रहा था, तब हिन्दू
बन्धुओं की स्थिति दयनीय थी। फिर स्वतन्त्र(?) हुए। अब और नई नई समस्याएँ जाग
उठीं। राजनीति, सिनेमा, धर्मान्तरण, वगैरह के तो बात ही नहीं करें तो अच्छा है।
मानव अर्थ कामों के पीछे ऐसे भाग रहा है कि सँभालना कठिन ही नहीं असम्भव हो चला
है।
यह
सब है बिल्कुल ट्रेफिक की तरह। पहले स्वयं गाड़ी सही चलाना जानें। मार्ग निष्कण्टक
हो, यह आवश्यक नहीं। गम्य स्थान का मार्ग सही सही ज्ञात होनी चाहिए। बीच में अन्य
गाडियों का ध्यान रखना चाहिए। कोई नियम न टूटे। यह भी कोई निश्चित नहीं कि हमारी
ओर से सही रहेंगे तो सही ही होगा। कहाँ से आकर कौन सी गाडी हमे टक्कर मार दें, पता
नहीं। अब इन सब के बीच में स्वयं को सँभालो। संयम रखो। कोई भी सहयोग मिले यह
निर्दिष्ट नहीं। इन सभी के चलते चलते ही धर्माचरण करोना पडता है। वरना अगला जीवन
या फिर जन्म का क्या होगा? इस प्रकार शारीरिक, मानसिक, व सामाजिक पाशों में बद्ध
मनुष्य पशु नहीं है तो और क्या है? बस, उस पशुपति का सहयोग न होता, तो इस लोक में
हमारा क्या होता?
---मन की बात २९.१२.२०१७
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