Thursday, May 31, 2018

मन की बात -2. प्रेम एवं गौरव

*प्रेम एवं गौरव*

           लोक में यह सुनने को मिलता है कि ‘ढाई अक्षर प्रेम का पढे सो पण्डित होय’। सत्य वचन ही होगा, क्यों कि पाण्डित्य तो विज्ञान को ही कहते हैं, तो प्रेम विज्ञान सिखाता है। प्रेम से परिचित होने के बाद व्यक्ति बहुत कुछ सीखता है, चाहे वह सच्चा प्रेम हो या झूठा। चाहे स्त्री-पुरुष प्रेम हो, पिता-पुत्र, या दोस्तों का आपसी प्रेम- उसमें होता तो एक ही चीज़ है- साथ निभाना। वस्तु का लेन देन, बात चीत, मन की बातें जानना, सुख दुःख का साथ में बाँटना, दुःख में सहारा मिलना, साथ जीना, साथ सोचना, एक दूसरे का सहारा बनना। बस, सम्बन्ध के हिसाब से प्रेमभाव की गहराई का अन्तर होता है। कहा जाता है कि पति-पत्नी का प्रेम सब से समीप वाला एवं मातृ-पुत्र प्रेम सबसे निष्कपट, एवं निःस्वार्थी हुआ करता है।
            साधारणतः किसी भी प्रेम को लेलीजिए, तो जिस व्यक्ति से भी प्रेम होता है, वो कदाचित अकारण होता है, कदाचित अभिरुचियाँ मिलने पर, एवं कदाचित् केवल साथ समय बिताते बिताते गहरा अपनत्व होजाता है। बस, एकबार सम्बन्ध में गहराई आजाती है, तो फिर उसे छुड़ाना आसान नहीं होता। बस, फिर जो प्रिय व्यक्ति है, उसके हाथ में अपना नियन्त्रण चला जाता है। यदि प्रियपात्र सच्ची में पात्र है, उस प्रियभावना का, तो कोई अड़चन नहीं। जीवन सुगम रूप से चलता है। पर यदि मध्यमार्ग में वह भटक जाता है, रास्ते से चूक जाता है, या आपसी विश्वास से पलट जाता है, तो सामने वाले की स्थिति बहुत ही दुर्भर होजाती है। उसके रूठ जाने से अपना दिल पीडित होता है। बात न करने से दुःखी होजाता है। और सामने वाला उसका आनन्द ले रहा होता है तो आन्तरिक भावनाओं को और भी क्षति पहुँचती है।
            तो क्या तब भी पहले वाले वादे को निभाते हुए आपसी प्रेम बनाए रखें? या तोड़ दे? आगे चलकर किसका क्या परिणाम होगा, यह समय पर निर्भर होता है। कोई भी मानव अनागत को जानने का अधिकारी नहीं। तो व्यवहारकुशल, समर्थ लोग तो व्यक्ति के बरताव से सम्बन्धित नर्म बातों की जानकारी रखते हैं, तो सही समय पर सही निर्णय ले पाते हैं। और जो बिल्कुल अज्ञानी, अनभिज्ञ, और बालसम बुद्धि वाले होंगे, वो तो टूट ही जाते हैं, पूरी तरह बिखर जाते हैं। अन्दर का प्रेम प्रवाह रुकने का नाम नहीं लेता, और बाहर की परिवृत्त परिस्थिति प्रवाह को अविकुण्ठित आगे जाने नहीं देती। इससे मन खिन्न होजाता है, दुविधा आजाती है। सामान्य जीवन जीने में कठिनाई होती है।
            तो जहाँ बात भगवान भक्त के प्रेम की नहीं, दो मनुष्यों के बीच सामान्य सी प्रेम की बात हो रही हो, तो यदि परिस्थिति के करवट लेने के बाद व्यवहार दुर्भर हो रहा हो तो मनुष्य क्या करे? सच्चाई को मानना असम्भव होरहा हो तो क्या अपात्र पर भी प्रेम की वर्षा बरसाते रहें? चलाने देते रहें? प्रियव्यक्ति के हाथ अपनी मन की चाबी पकड़ाकर यथेच्छा स्वयं को तुडवाते एवं बिखराते रहें? किया हुआ वादा समझकर वचनबद्धता के पैरों तले कुचले जाते रहें?
            मुझे लगता है, नहीं। सच्चा प्रेम केवल प्रेम ही नहीं होता। उसमें आपसी विश्वास भी होता है, और सर्वमुख्य वस्तु प्रधानतः होती है- आपसी गौरव। आपसी गौरव के बिना प्रेम अधूरा है। जो प्रेम किसी से हमें निष्कपट प्राप्त हो रहा हो, उसका सदा मूल्य रखना चाहिए। केवल किसीसे प्रेम सम्बन्ध का यूँ ही निर्वाह नहीं होपाता, जब तक वे एक दूसरे पर विश्वास और गौरव न रखतें हों। चाहे कितने भी घनिष्ठ मित्र क्यों न हों, यदि सामने वाले के प्यार को अपना जायदाद समझलें, तो बस, नचाना प्रारम्भ होजाता है। एक का नचाना और दूसरेका नाचना प्रेम नहीं होता।
            जहाँ अपनत्व की भावना के आधार पर केवल लेना ही, या केवल देना ही चल रहा हो, वह सम्बन्ध सच्चा प्रेम का स्मब्नध नहीं होता। तो प्रेम की भावना आपस में है या नहीं, इसे जाँचने से पहले व्यक्ति को चाहिए कि वह यह देखले कि सामने वाले को मेरे प्रेम का कदर है या नहीं? वह मेरे ऊपर गौरव रखता है कि नहीं, मुझे एक गौरवनीय व्यक्ति के रूप में देखता है या केवल इस सम्बन्ध को अपने स्वार्थ साधन का मार्ग बना रहा है? प्रारम्भ में इन बातों का पता लगना अति कठिन होने के कारण, अधिकतर घना सम्बन्ध बनने के बाद ही अन्धेरे की सच्चाई बाहर आती है। अतः सावधान रहें। हर किसीसे स्नेह या प्रेम या वात्सल्य का सम्बन्ध रखना असम्भव है। बहुत कम लोग उसका महत्त्व समझते हैं।

No comments:

Post a Comment